बॉलीवुड की एक तन्हा औरत नादिरा -वीर विनोद छाबड़ा


औरत जब मोहब्बत में पड़ती है तो ढेर गलतियां करती है। सब कुछ हार जाती है। नादिरा इसकी एक मिसाल है। वो नक्शब की पोएट्री पर इस कदर फ़िदा थीं कि दिल दे बैठीं। सिर्फ इतना ही नहीं शादी भी कर ली। दुनिया ने बहुत समझाया, दुगनी उम्र का बंदा है। लेकिन मोहब्बत में सर से पाँव तक डूबा दिल है कि मानता नहीं। क़रीब दो साल चली ये शादी। और इस दरम्यान ही नादिरा को अहसास हुआ कि अकेलापन क्या होता है? चारदीवारी औरत के लिए जहन्नुम का दूसरा नाम है। ज़ालिम मर्द इसी का फ़ायदा उठाता है। वो सवाल करती थीं, क्या तुम वही हो जो इतनी इमोशनल पोएट्री लिखते हो? तलाक हुआ। लेकिन उन्होंने फिर ग़लती दोहराई। अरब मूल के एक अमीर से शादी कर ली। लेकिन वहां भी चारदीवारी में क़ैद मिली। कुछ महीने बाद वहां से भी जैसे-तैसे पिंड छुड़ाया। लिया। उन्हें लगा ज़िंदगी बहुत जी ली, इससे बदत्तर कुछ हो नहीं सकता। मरना ही बेहतर है। लेकिन उनके आस-पास एक दुनिया थी, जो उनके भरोसे थी। मां और दो भाई।
नादिरा के सर से पिता का साया बहुत पहले ही उठ गया था। मां फौज में पॉयलट थीं, सेकंड वर्ल्ड वॉर में बाकायदा हिस्सा लिया। मगर वॉर ख़त्म होते ही सब छूट गया। महबूब ख़ान को 'आन' (1952) के हीरो दिलीप कुमार के सामने एक ऐसी तेज़ तर्रार हंटर वाली टाईप लड़की की तलाश थी जिसका लुक एंग्लो-इंडियन हो ताकि इसका इंग्लिश वर्ज़न भी तैयार किया जा सके। उनकी बेग़म सरदार अख़्तर ने नादिरा को एक पार्टी में स्पॉट किया और वो अफ़गानी यहूदी लड़की फ्लोरेंस एजेकेल से नादिरा बन गयीं। तब नादिरा अल्हड़पन के दौर से गुज़र रही थीं, फ़िल्मी तौर-तरीकों और फ़िल्मी लोगों से बिलकुल अनजान। न उनको महबूब ख़ान की अहमियत का अहसास था और न दिलीप कुमार की शख़्सियत का इल्म। कई बरस बाद जाना कि दिलीप कुमार एक अजूबा है जिसके ज्ञान में ऐसे-ऐसे अल्फ़ाज़ हैं कि कई बार डिक्शनरी का सहारा लेना पड़ा।
'आन' की बेमिसाल क़ामयाबी से नादिरा की दहलीज़ पर दर्जन भर फ़िल्मों के ऑफर भले आ गए मगर किस्मत नहीं चमकी। नगमा, रफ़्तार, प्यारा दुश्मन, डाक बाबू, वारिस सब फ्लॉप हो गयीं। तभी उनकी ज़िंदगी में एक और शख्स आया, राजकपूर, जिन्हें वो ताउम्र राजू भैया कहती रहीं। जब 'संगम' (1964) के दिनों में राजकपूर की निजी ज़िंदगी में वैजयंती माला से उनके रिश्तों को लेकर आग लगी और बहनों से भी मिली तो ये नादिरा ही थी, जिन्होंने टूटे हुए राजकपूर को राखी बांधी।
बहरहाल, नादिरा को भी उन दिनों किसी हिट बैनर की शिद्दत से तलाश भी थी, भले ही निगेटिव रोल हो। और ये किरदार था 'श्री 420' (1955) की सोसाइटी गर्ल माया का, जिसे दुनिया 'मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के...' गर्ल के नाम से भी जानती है। मगर नादिरा इसे करके बहुत पछतायी। उनके पास निगेटिव रोल ही आने लगे। और वो साल भर तक मना करती रहीं। मगर इससे फ़ायदा मिला शशिकला को, वैम्प के सारे किरदार उनकी झोली में चले गए। चाहे लीड रोल हो या निगेटिव या कॅरेक्टर, नादिरा ने अपने दौर के हर हीरो के साथ काम किया। अशोक कुमार के साथ सिर्फ एक फिल्म की, नगमा, जो उनके पति नक्शब ने डायरेक्ट की थी। वो बताती थीं कि हालाँकि अशोक कुमार एक बेहतरीन हरफ़नमौला अदाकार थे, लेकिन उनके साथ शूटिंग सिर्फ़ चार-पांच दिन ही की। बाकी के शॉट डुप्लीकेट के साथ हुए।
देवानंद के साथ नादिरा ने 'पॉकेटमार' (1956) की और फिर कई साल बाद 'इश्क इश्क इश्क' (1974) में उनकी मां बनीं। उन्हें देखते ही देव ने याद दिलाया था, मेरी पॉकेट न मारना। नादिरा को 'दिल अपना और प्रीत पराई' (1960) में राजकुमार का साथ बहुत अच्छा लगा था। वो एक तहज़ीबदार और शानदार इंसान थे, लेकिन दुनिया उनके बारे में जाने क्यों अंटशंट बोलती रही। इस फ़िल्म में वो उनकी शकी पत्नी थीं जिनको हीरोइन मीना कुमारी से उनके पूर्व रिश्तों को लेकर बेहद कड़वाहट रही। अदाकारी के लिहाज़ से ये नादिरा की यादगार फिल्म रही। मीना कुमारी उनकी अच्छी सहेली थीं। उनकी मौत ने नादिरा को बहुत भीतर तक डरा दिया था। जिसकी कमाई से न जाने कितने लोग पले उसे आखिर में एक अदद सफ़ेद चद्दर भी अस्पताल की मेहरबानी से मिली। इससे बड़ी बदनसीबी क्या हो सकती है?
नादिरा की दो अन्य फ़िल्मों का ज़िक्र भी ज़रूरी है। मोतीलाल की 'छोटी छोटी बातें' (1965) में नादिरा एक सोशल वर्कर के पॉज़िटिव किरदार (शांति) में बहुत अच्छी लगी थीं जो मन की शांति की तलाश में भटक रहे मोतीलाल की हरसंभव करती है मगर उसका वहशी बहनोई हर वक़्त बुरी नज़र रखता है। इस फ़िल्म को दीपा गहलोत की पुस्तक 'Take 2 - 50 Films That Deserve A New Audience' में शुमार किया गया। नादिरा ने 'सफ़र' (1970) में फ़िरोज़ खान की मां का छोटा सा पावरफुल किरदार अदा किया था जिसमें वो कोर्ट में क़त्ल के इलज़ाम में कटघरे में खड़ी बहु शर्मीला टैगोर के पक्ष में गवाही देती हैं कि उनकी बहु साईनाइड का इंजेक्शन खुद को दे सकती है मगर पति को नहीं दे सकती।


बलराज साहनी को वो बेहतरीन इंसान मानती रहीं। उन्हें उनके साथ 'आकाश' (1952) में काम करने का मौका मिला था। वो बताती थीं वो जब भी मिले, लगा कि अंदर से टूट रहे रहे हैं। कुछ अजीब सी कशमकश थी उनकी ज़िंदगी में। उनकी बेवक़्त मौत पर मैंने खुदा से दुआ की थी कि उन्हें दोबारा इंसानों के जंगल में मत भेजना। तलत महमूद के साथ नादिरा ने तीन फ़िल्में कीं, डाक बाबू, वारिस और रफ़्तार। वो बताती थीं, एक शालीन और खामोश इंसान जो वाकई एक्टिंग के लिए नहीं आवाज़ की दुनिया के लिए बना था।
बेज़ा न होगा अगर कहा जाए, नादिरा भले ही किसी वज़ह से फिल्मों में आयीं लेकिन बेहतरीन अदाकारी की पर्याय रहीं। 'जूली' (1975) में उनको एक जवान बेटी की बेहद फ़िक्रमंद एंग्लो-इंडियन मां मार्गरेट के किरदार में बहुत सराहा गया। इसके लिए उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। नादिरा की कुछ अन्य यादगार फ़िल्में हैं, छोटी छोटी बातें, मेरी सूरत तेरी आँखें, तलाश, सफ़र, इश्क पर ज़ोर नहीं, चेतना, एक नज़र, राजा जानी, पाकीज़ा, कहते हैं मुझको राजा, धर्मात्मा, अमर अकबर अंथोनी, आस पास, सागर।

1997 में एक टीवी सीरियल 'मार्गरीटा' भी उन्होंने किया। उन्हें आख़िरी बार शाहरुख़ खान-ऐश्वर्या की 'जोश' (2000) में ख़राब बोलने वाली लेडी डिकोस्टा के किरदार में देखा गया था। उम्मीद थी कि इससे उनकी फिल्मों में वापसी होगी। लेकिन ऐसा हो न सका। आख़िरी कई साल उन्होंने मुंबई के एक अपार्टमेंट में अकेले ही काटे। दोनों भाई विदेश बस गए। लेकिन उन्हें हिंदुस्तान ही पसंद आया। अपना जन्मदिन वो अपार्टमेंट में रहने वालों के साथ केक काट कर मनाती थीं। मगर किताबों का साथ उन्होंने कभी नहीं छोड़ा, हर किस्म की किताब, फिक्शन और नॉन-फिक्शन। उन्हीं के साथ और उन्हीं के बीच सोती थीं। वो कहती थीं उन्हें ज़िंदगी किताबों से ही मिली। शराब और सिगरेट ने उन्हें कई बीमारियां दीं। 9 फरवरी 2006 को 74 साल की उम्र में हार्ट अटैक के चलते वो परलोक सिधार गयीं। अकेलेपन का यही हश्र होता है।

वीर विनोद छाबड़ा

(जाने माने फ़िल्म समीक्षक)

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