तो क्या फैसले के लिए 9 नवंबर इसलिए चुना गया?

अपील: फैसला आने के बाद सबसे अपील है आप भारत की अखंडता और भाईचारा में पूरा सहयोग करें। फैसला कुछ भी आये किसी भी पक्ष में आये। किसी पर किसी तरह का टीका-टिप्पड़ी न करें। भारत की एकता को बनाये रखें। सोशल मीडिया के अफवाहों पर ध्यान न दें।

9 नवंबर 2019 शनिवार यानि कि आज सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने वाला है जो देश का सबसे महत्वपूर्ण फैसला है। इससे भी बड़ी बात है देश के लोगों की सोच। यानी यह देश इस फैसले के बाद किस तरह रहेगा। पूरा देश एकजुट होना चाहिए। 9 नवंबर को ही एक और ऐतिहासिक मानवता को कायम करने वाला फैसला हुआ था हालांकि इसमें किसी कोर्ट की जरूरत नहीं थी और यह फैसला सिर्फ जनता का था।

9 नवंबर 1989 को बेर्निल की दीवार को तोड़ दिया गया था। जिसके बाद एक नए राष्ट्रवाद का उदय हुआ था। शायद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का फैसला भी यही संदेश देने वाला है। इसीलिए हो सकता है उन्होंने यह दिन मुकर्रर किया हो। पढिये बर्लिन की दीवार की कहानी।(सोर्स विकिपीडिया)

बर्लिन की दीवार (जर्मन: Berliner Mauer बर्लीनर माउअर) पश्चिमी बर्लिन और जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य के बीच एक अवरोध थी जिसने 28 साल तक बर्लिन शहर को पूर्वी और पश्चिमी टुकड़ों में विभाजित करके रखा। इसका निर्माण 13 अगस्त 1961 को शुरु हुआ और 9 नवम्बर, 1989 के बाद के सप्ताहों में इसे तोड़ दिया गया। बर्लिन की दीवार अन्दरुनी जर्मन सीमा का सबसे प्रमुख भाग थी और शीत युद्ध का प्रमुख प्रतीक थी।

बर्लिन की दीवार का एक भाग। बीच के "मृत्यु क्षेत्र" में बचकर भागने वाले प्रवासी सीमा रक्षकों के लिए सीधा निशाना बनते थे। दीवार के एक ओर भित्तिचित्र देखे जा सकते हैं। ये केवल पश्चिमी बर्लिन की तरफ बनाए जा सकते थे, पूर्वी बर्लिन की ओर ऐसा करना सख्त मना था।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब जर्मनी का विभाजन हो गया, तो सैंकड़ों कारीगर और व्यवसायी प्रतिदिन पूर्वी बर्लिन को छोड़कर पश्चिमी बर्लिन जाने लगे। बहुत से लोग राजनैतिक कारणों से भी समाजवादी पूर्वी जर्मनी को छोड़कर पूँजीवादी पश्चिमी जर्मनी जाने लगे (जर्मन: Republikflucht)। इससे पूर्वी जर्मनी को आर्थिक और राजनैतिक रूप से बहुत हानि होने लगी। बर्लिन दीवार का उद्देश्य इसी प्रवासन को रोकना था। इस दीवार के विचार की कल्पना वाल्टर उल्ब्रिख़्त के प्रशासन ने की और सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने इसे मंजूरी दी।



बर्लिन की दीवार बनने से यह प्रवास बहुत कम हो गया - 1949 और 1962 के बीच में जहाँ 25 लाख लोगों ने प्रवास किया वहीं 1962 और 1989 के बीच केवल 5,000 लोगों ने। लेकिन इस दीवार का बनना समाजवादी गुट के प्रचार तंत्र के लिए बहुत बुरा साबित हुआ। पश्चिम के लोगों के लिए यह समाजवादी अत्याचार का प्रतीक बन गई, खास तौर पर जब बहुत से लोगों को सीमा पार करते हुए गोली मार दी गई। बहुत से लोगों ने सीमा पार करने के अनोखे तरीके खोजे - सुरंग बनाकर, गरम हवा के गुब्बारों से, दीवार के ऊपर गुजरती तारों पर खिसककर, या तेज रफ्तार गाड़ियों से सड़क अवरोधों को तोड़ते हुए।

1980 के दशक में सोवियत आधिपत्य के पतन होने से पूर्वी जर्मनी में राजनैतिक उदारीकरण शुरू हुआ और सीमा नियमों को ढीला किया गया। इससे पूर्वी जर्मनी में बहुत से प्रदर्शन हुए और अंततः सरकार का पतन हुआ। 9 नवम्बर 1989 को घोषणा की गई कि सीमा पर आवागमन पर से रोक हटा दी गई है। पूर्वी और पश्चिमा बर्लिन दोनों ओर से लोगों के बड़े बड़े समूह बर्लिन की दीवार को पारकर एक-दूसरे से मिले। अगले कुछ सप्ताहों में उल्लास का माहौल रहा और लोग धीरे-धीरे दीवार के टुकड़े तोड़कर यादगार के लिए ले गए। बाद में बड़े उपकरणों का प्रयोग करके इसे ढहा दिया गया।

बर्लिन दीवार के गिरने से पूरे जर्मनी में राष्ट्रवाद का उदय हुआ और पूर्वी जर्मनी के लोगों ने जर्मनी के पुनरेकीकरण के लिए मंजूरी दे दी। 3 अक्टूबर 1990 को जर्मनी फिर से एक हो गया।

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